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Thursday, November 10, 2011

दीपक की अभिलाषा

फलक तक अँधेरा तो क्या बात है,
अभी तो हैं रोशन किनारे कई;
खड़ा हूँ बुझे बिन, अकेला सही,
हैं रोशन नज़ारे तो क्या बात है|

टिका हूँ, सहारों की परवाह वगैर,
की अभी रुत जाने की आई नहीं;
जला हूँ तो जलकर ही पूरी करूँ,
सब हसरतें जो, तो क्या बात है|

कभी तेल, बाती, कभी है हवा,
अंधेरों से में पर खड़ा खेलता,
तमस ही मिटाऊँ, उजाला करूँ,
पर ना हों धमाके तो क्या बात है|

शरर हूँ, तो उठती है आग जब,
बदल जाते हैं नज़ारे कई,
जब भी लौ जले तो बदलाव हों,
हो बेहतर जो हर दर तो क्या बात है|
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मैं जिंदा हूँ, मगर ज़िंदगी नहीं हूँ; मुझपे मरने की ग़लती करना लाज़िम नहीं है|

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