सुबह-सबेरे की हरियाली, धुप सुनहरी दोपहर में,
ऐसी मैंने शाम न देखी, रात कभी भी जीवन में।
पर ये मौसम आते-जाते, कभी न स्थिर रहते क्यों?
कभी नहीं स्थिर रहते औ', ख्यालात भी जीवन में।
आज है गम तो ख़ुशी का दिन भी, जल्दी ही आ जायेगा;
ख़ुशी औ' ग़म की धूप-छाओं का, खेल है चलता जीवन में।
मैं हूँ क्या?, ये कैसे बोलूँ?, नहीं है स्थिर कुछ भी औ'
मुझे बताओ जान सका है, कौन किसी को जीवन में?
ये न पूछो मेरा क्या है?, अपना भला मगर देखो;
जान सका है कहाँ कोई भी, मूल-मंत्र ये जीवन में?
ये मेरी कल्पना नहीं है, जरा सोचकर देखो तुम!
स्थिरता ही बनी रहे तो, मजा नहीं है जीवन में।
स्थिरता-अस्थिरता पे ही, धर्म-ग्रन्थ लिख चुके हैं लोग;
इसी वजह से धर्म-ग्रन्थ की, बढ़ी महत्ता जीवन में।
सभी ग्रंथों का सर लिखूं तो, एक वाक्य ही आयेगा;
मिलता कुछ भी नहीं किसी को, मुफ्त कभी भी जीवन में।
जीवन क्या है? बस एक संगम, ख़ुशी औ' ग़म का और यहीं,
स्थिरता-अस्थिरता की परिभाषा, गढ़ी किसी ने जीवन में।
ये मेरी कल्पना नहीं है, जरा सोचकर देखो तुम!
ReplyDeleteस्थिरता ही बनी रहे तो, मजा नहीं है जीवन में।
Sahi hai!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletedhanyawad ashish ji.
ReplyDelete