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Monday, July 26, 2010

जीवन में

सुबह-सबेरे की हरियाली, धुप सुनहरी दोपहर में,
ऐसी मैंने शाम न देखी, रात कभी भी जीवन में।

पर ये मौसम आते-जाते, कभी न स्थिर रहते क्यों?
कभी नहीं स्थिर रहते औ', ख्यालात भी जीवन में।

आज है गम तो ख़ुशी का दिन भी, जल्दी ही आ जायेगा;
ख़ुशी औ' ग़म की धूप-छाओं का, खेल है चलता जीवन में।

मैं हूँ क्या?, ये कैसे बोलूँ?, नहीं है स्थिर कुछ भी औ'
मुझे बताओ जान सका है, कौन किसी को जीवन में?

ये न पूछो मेरा क्या है?, अपना भला मगर देखो;
जान सका है कहाँ कोई भी, मूल-मंत्र ये जीवन में?

ये मेरी कल्पना नहीं है, जरा सोचकर देखो तुम!
स्थिरता ही बनी रहे तो, मजा नहीं है जीवन में।

स्थिरता-अस्थिरता पे ही, धर्म-ग्रन्थ लिख चुके हैं लोग;
इसी वजह से धर्म-ग्रन्थ की, बढ़ी महत्ता जीवन में।

सभी ग्रंथों का सर लिखूं तो, एक वाक्य ही आयेगा;
मिलता कुछ भी नहीं किसी को, मुफ्त कभी भी जीवन में।

जीवन क्या है? बस एक संगम, ख़ुशी औ' ग़म का और यहीं,
स्थिरता-अस्थिरता की परिभाषा, गढ़ी किसी ने जीवन में।

3 comments:

  1. ये मेरी कल्पना नहीं है, जरा सोचकर देखो तुम!
    स्थिरता ही बनी रहे तो, मजा नहीं है जीवन में।


    Sahi hai!

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  2. This comment has been removed by the author.

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About Me

मैं जिंदा हूँ, मगर ज़िंदगी नहीं हूँ; मुझपे मरने की ग़लती करना लाज़िम नहीं है|

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