रोज,
गुजरता हूँ मैं,
महफिलों से, साहिलों से, बस्तियों से,
फासलों से गुजरकर सोचा करता हूँ;
पा लिया जीने का सबब मैंने,
इसलिए अब रोज मरा करता हूँ|
दस्तक देती है दरवाजे पर जब भी कोई आहट,
मैं दिल से उसका इस्तकबाल किया करता हूँ;
रोज-रोज चाहता हूँ मैं दीदार किसी का,
इसलिए आँखों से अपनी बात किया करता हूँ|
मैं खड़ा हूँ अपने अंजाम का अंदाज़ देखने,
ये वजह है एहसासों से दूर रहा करता हूँ;
फिर भी गर गुजर जाता हूँ एहसासों के किसी दरिये से,
लेकर बैठता हूँ कलम, लिखा करता हूँ|
yaar bahut sahi likhte ho ........ i love ur poetry
ReplyDeleteshekhar sir,
ReplyDeleteap logon se hi seekha hoon
aur apki poetry to padh ke hi main itna kho jata hoon ki likhne ke liye kuchh bachta hi nahi mere pas
:)