वाह रे मेरे शेर!
की तुझमें कुछ सामर्थ्य है;
मगर जब भी,
धूल भरी सड़क पे मैंने,
बारिश को गिर कर,
धूल दबाते देखा है
मान लिया है मैंने
की युद्ध में
विजेता कोई भी हो सकता है--
सुदृढ़ कणों से जीततीं,
बारिश की तरल बूँदें।
देखा है मैंने
की कैसे वक़्त के आगे
मान ली है
बड़े बड़े पुराधाओं ने हार
और कैसे
वक़्त को रोकने का
कोई ना कर सका कभी
साहस...
तू तो बस इंसान है--
नश्वर, डरपोक, बंधक।
जब भी देखा है मैंने
शिशु, समर्थों को
कल्पनाशक्ति की उड़ान से उड़ते
दिल_
आज के युग में
उनकी चेतना के
व्यर्थ हो जाने के
उदहारण देकर
रुलाता है मुझे
वे शिशु, वे समर्थ--
तुझमें तो खोने के लिए भी
कुछ ढूंढना पड़ेगा।
आज एक बार फिर
मैं भयभीत हूँ
देखकर_
न, न! सोचकर
की कैसे सम्हालेगा तू
इन परिस्थितियों को
जो दिन ब दिन
समर्थ होती जा रहीं हैं
और तू..
शायद कमजोर।
कैसे
चुपचाप कर सकता है कोई
धमाकों से भयंकर आवाज़
कोरी कल्पना लगती है मुझे ये
उन शिशुओं की.. उन समर्थों की
कैसे बिना युद्ध नीति लडेगा तू
वो रण
जिसका दिशा ज्ञान भी नहीं तुझे
बस तू मांग सकता है तो कुछ वक़्त
पर ये बता
की आज तक मिला है किसी को
वक़्त?
बता....
कैसे? बता?
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हम्म..
सुन ली मैंने तुम्हारी
बस अब कुछ न कहना।
तुम देखोगे।
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