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Tuesday, December 21, 2010

दो बूँद.......... ज़िन्दगी की

बस
दो बूँद,
ज़िन्दगी की।

कितनी हकीकत है,
मालूम नहीं।

ढूँढने निकलते हैं,
तो कुछ बच्चे,
आज भी मिल जाते हैं,
सड़क के किनारे।
लंगड़ाते हुए,
और पता नहीं कितने होंगे,
जो लंगड़ा भी नहीं सकते।

एक और योजना।

दो बूँद, ज़िन्दगी की।

कभी,
जब महफिलों में
बैठ जाते हैं।
जाम टकराते हैं,
पैमाने खाली होते जाते हैं,

उन्हें भरते रहो,
पीने के बाद होश नहीं रहता,
लोग कहते हैं,
क़त्ल तक हो जाते हैं।

दो बूँद, ज़िन्दगी की।

कभी रास्तों पे निकले हो,
रातों में, किसी दुखियारे की चीख सुनके?
किसी के घर में चोरी हुई;
हमें क्या, सुबह देखेंगे।
कहीं दंगे, कहीं फसाद,
और भी न जाने क्या-क्या...

फिर भी,
इस तिश्नगी का कमाल देखो।
लोग निकलते हैं,
काले-बाज़ार की तलाश में
रातों के अंधियारे में,

काश कोई कभी बचा हो,
इन खुद न सम्हले हुयों की वजह से।

दो बूँद, ज़िन्दगी की।

3 comments:

  1. जिस विषय से शुरू किया उसी पर चलना चाहिए था।

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  2. hmmm, sahi kaha devendra ji, asal mein ek sath hi baith ke nahi likhi isiliye galti ho gayi.

    waise age se dhyan rakhoonga, salah ke liye shukriya.

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  3. अनकही बातें.... और कही जाएँ.
    आशीष

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About Me

मैं जिंदा हूँ, मगर ज़िंदगी नहीं हूँ; मुझपे मरने की ग़लती करना लाज़िम नहीं है|

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