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Friday, December 17, 2010

चौराहा और ज़िन्दगी

चौराहा,
सड़क का किनारा,
चीखती मोटर,
मचलते लोग।

अरे अभी बचा,एक्सिडेंट हो जाता
वो देखो रिक्शे और जीप की टक्कर।

किसी ने कुछ पूछा क्या_
हाँ अंकल ने बता दिया;
तुम्हारी उम्र - ४०
अंकल की - ३५
फिर वो अंकल कैसे हुए?

वो देखो,
राय साहब की लाइन ख़राब है।
गड्ढा खुद रहा है।
अरे ऐसा तो है ही,
"खुले गड्ढे बहता पानी, सरकार को कोसते लोग"
गड्ढा भर जाने दो।
कल फिर सब सरकार को कोसेंगे।

अरे भाई एक सिगरेट देना,
छुट्टा देना साहब_
पर बाबु जी को तो तुने १०० रुपये में भी गुटके के लिए मन नहीं किया!
वो रोज आते हैं न_

द हिन्दू, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, चम्पक मनोरमा,
कुछ लोग खरीदते हैं आज भी_
लगा के रखी है दुकान मऊटे ने, फुटपाथ पे।
जमीन की कीमत- १० रुपये रोजाना।
ऐसे कई मऊटे हैं,
सामान फुटपाथ पे_
फुट, सड़कों पे_
गाड़ियाँ जाम में।
जाम की कीमत-
भला कब से तुम्हारे शहर में वक़्त की कीमत लगाई जाती है?

बस इंकवायरी
अरे उनसे मत पूछो,
वो ट्रांसपोर्ट में सरकारी आदमी है।
२ रुपये की मूंगफली के साथ
बस डायरेक्टरी मिलती है- फ्री एंड एक्युरेट।

चलो मेरी बस आ गयी।
में चलता हूँ,
कुछ और चोरहों के बाद_
मेरा चौराहा है,
येही ज़िन्दगी,
वही रुकेंगे_फिर मिलेंगे।

ये तो रोजमर्रा की ज़िन्दगी है।
बस चलती रहेती है।

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मैं जिंदा हूँ, मगर ज़िंदगी नहीं हूँ; मुझपे मरने की ग़लती करना लाज़िम नहीं है|

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