मेरी सोच को अल्फाज़ देके देख लो;
मुझसे रूबरू होने की ज़रुरत क्या है?
मुझे जानने की ख्वाहिश ही है अगर;
तो मुझे ढूँढने की ज़रुरत क्या है?
तुम एक बार अपने चेहरे पे, मेरा नाम पढने की कर लो कोशिश;
मेरा नाम जानने की ज़रुरत क्या है?
तेरी मुझे जानने की वजह समझ नहीं आती मेरे;
आखिर इस तड़प का सबब क्या है?
इतनी बोझिल भी नहीं ज़िन्दगी, की साथ न चल सके,
इसके बिना जीने की ज़रुरत क्या है?
जितने छलकाते हो तुम पैमाने, उतने नशे में हूँ मैं,
मुझे और पीने की ज़रुरत क्या है?
है एक नशा खुद ही, हर एक काम का अंजाम;
तुझे किसी नशे की ज़रुरत क्या है?
तेरे आंसुओं में ही तलाश करता हूँ मैं अपने दर्द;
मुझे भला रोने की ज़रुरत क्या है?
बढ़ता चला जा तू ये नाकामियों के दौर
भला तुझे कामयाबी की ज़रुरत क्या है?
ये मेरी ज़रुरत है, या ज़रुरत नहीं मेरी?
मुझे ज़रूरतों की ज़रुरत क्या है?
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